Sunday, January 12, 2025

मोना की कहानी (अध्याय 9)

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तो भी मैं ऐसे रहती कि जैसे मुझे कोई दिक्कत नहीं। मैं अपने पति से रोज़ कमाने को बोलती कि “जाओ, कहीं काम कर लो, तो ठीक रहेगा।” इस बात पर भी मेरी सास-ससुर मुझसे बहुत नाराज़ होते, कहते, “कैसी है, अपने पति को कमाने के लिए कहती है,” और बहुत खरी-खोटी सुनाते। जिंदगी ऐसी बन गई थी मानो मैं एक ज़िंदा लाश भी नहीं हूँ, क्योंकि लाश का भी अंत होता है—आख़िर में उसे जलाया जाता है। पर मैं तो वो भी नहीं—हर समय बस मरना ही दिखता था। मायके वाले भी यही बोलते थे कि “जो हो गया, सो हो गया, अब यही तुम्हारा सब कुछ है।” ये बातें याद करती थी तो सोचती, “अब क्या करूँ? ससुराल में ऐसी स्थिति और मायके में वैसी।”

मैं कभी भी मायके से उम्मीद नहीं रखती थी क्योंकि मेरी माँ थोड़ी अलग हैं, और अब तो बस भगवान पर ही आसरा था कि वही करेंगे, जो करना होगा। मुझे अपने भगवान पर बहुत भरोसा है—इतना भरोसा कि जब मैं बाहर आई थी जॉब करने, मेरे पास कम पैसे मिलते थे और बच्चे बीमार पड़ते थे, तो मैं जॉब पर जाने से पहले अपने बच्चे को भगवान के पास छोड़ देती थी—उनकी एक फोटो रख देती, साथ में दवा—and मैं अपनी बेटी से कहती, “बेटा, ये दवा दे देना, मैं शाम को आऊँगी।” और मैं कंपनी में काम तो करती, पर सारा दिन भगवान को ही याद करती—दुर्गा माँ को, कि “माँ, वो मेरी बेटी नहीं, वो आपकी ही बेटी है, आप उसे संभाले रखना जब तक मैं जॉब पर हूँ।” ये बोलकर मैं निश्चिंत होकर काम करती थी, और मुझे पूरा भरोसा रहता था कि मेरी बेटी ठीक रहेगी।

जब मैं शाम को घर आती, मेरी आदत थी कि कुछ लेकर ही आती—और मेरे बच्चे खाते। ये मेरा रोज़ का ही रूटीन था। आज तक मेरे बच्चों ने कुछ माँगा नहीं, न ही कभी जिद की। मैं कभी 10 रुपये भी दे दूँ तो वैसे ही रख देते, ख़ुद नहीं लेते। मैं बोलती, “बेटा, कुछ खरीद लो,” पर वो नहीं लेते। बाकी बच्चे दिन भर दुकान से कुछ न कुछ खाते हैं, तो मैं सोचती कि शायद इन्हें भी चाहिए होगा, पर नहीं। आज तक उनकी यही आदत रही कि मैं ले आऊँगी तो खाएँगे, वरना ख़ुद से दुकान पर नहीं जाते। आज मेरी बेटी 12वीं में पहुँच गई, फिर भी वही है—जो घर में है, वही खाती है, कहीं जाना या घूमना नहीं, न ही फ़ालतू में कहीं दिमाग़ लगाना। बस खाना, स्कूल जाना और सो जाना—आज तक यही चल रहा है।

अब बस यही प्रार्थना करती हूँ भगवान से कि “हे भगवान, ज़्यादा सपना नहीं है, पर कुछ अच्छा कर देना,” क्योंकि मैंने बहुत मेहनत से पाला है उसे, पढ़ाया है। मैंने खुद बहुत कष्ट झेले हैं, पर अपनी बेटी को अपनी तरफ़ से कोई दिक्कत नहीं होने दी। हाँ, थोड़ा-बहुत तो हुआ ही होगा, पर मेरी हालत जैसी थी, उस हिसाब से मैंने उसे ज़्यादा तकलीफ़ नहीं आने दी, खाने-पीने और पढ़ाई का बहुत ध्यान रखा।

जब मेरी बेटी का पहला जन्मदिन था, तो उसके लिए कपड़े ख़रीदने मैं अपने ससुर को बोल रही थी कि “ला दीजिए,” गाँव में ही दुकान थी, थोड़ा दूर पर। मैं खुद ही पैसे जोड़-जोड़कर ये सब करती थी, तो सोचती थी कि अगर मैं जाती, तो किराया लगता, इसलिए मैंने अपने ससुर से ही लाने को कहा। दुकानदार को एक लेटर लिखकर दिया था मैंने, सोचती थी, “मेरी बेटी के लिए कैसा भी कपड़ा पापा दिला देंगे, क्यों न मैं एक लेटर दे दूँ,” ताकि वो समझ जाए, क्योंकि उस समय फ़ोन नहीं था। मैंने लेटर दे दिया और कहा कि इसमें ड्रेस का नाप और कौन-सा ड्रेस चाहिए लिखा है। मेरे ससुर ले आए। क्योंकि मेरे पति को कहीं जाने नहीं देते थे कि “कहाँ जाएगा? हम ले आएँगे।” अजीब दिमाग़ है मेरे ससुर का—आज भी वैसा ही है। कोई काम अपने बड़े बेटे से नहीं कराते, पता नहीं कैसे माँ-बाप हैं।

मैं इन बातों से गाँव में बहुत टेंशन में रहती थी और अपने पति को बाहर भेजती कि “जाओ, बाहर जॉब करो,” लेकिन वो कर नहीं पाते और घर लौट आते। इसी तरह 20 साल निकल गए—ना बचपन समझ आया, ना जवानी, कुछ पता ही नहीं चला। इसी में घिस-पिटकर दो बच्चे हो गए, और मैं अकेले बाहर जॉब करने निकल गई। उस वक़्त उम्र भी बहुत कम थी, समझदारी भी कम थी। हाँ, लड़कों से बच-बचकर रहती थी, बातें करती थी पर इतना इंट्रेस्ट नहीं था। मेरी सब फ्रेंड कहती थीं, “यार, कोई दोस्त होना चाहिए, जिससे तुम बात करो, टाइम पास करो, पर तुम तो हटके हो।” मैं एक ही बात बोलती थी, “नहीं, सब अपना कर्म करो, पर ‘कुकुर के फेरा’ में मत रहो (फ़ालतू घूमना-फिरना मत करो)। मुझे लड़का पसंद नहीं है।” वो कहतीं, “यार, सब एक जैसे नहीं होते, तुम बात तो करो,” पर मैं नहीं करती।

कुछ लड़के मेरी माँ का नंबर माँगते कि “तुम कितना ग़ुस्सा करती हो, हमेशा उल्टा जवाब देती हो, फिर भी अच्छी लगती हो।” मैं कभी भी सज-सँवरकर कंपनी नहीं जाती थी, बहुत सादगी से जाती थी, क्योंकि मुझे बस इतना पता था कि ज्यादा सज-सँवरकर नहीं जाने से कोई उतना ध्यान नहीं देता, इसलिए मैं ऐसे ही रहती थी।

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