मैं घर गई थी अपने जेठ की मौत पर। वहाँ घरवाले बोल रहे थे, “इस (गुड्डू) को भी ले जाओ, वहीं रखो।” कोई ये नहीं कहता कि “तुम अकेले कैसे रह लेती हो, कैसे मैनेज करती हो?” मतलब, औरतों का दर्द कोई भी नहीं समझता। मायके में मायकेवाले कहते हैं, “क्या करोगी, जैसा पति है, सहना पड़ेगा,” और ससुराल में भी वही कि “तुम रखती नहीं हो, तुम ही बदमाश हो।” कोई नहीं समझने वाला है। ये कैसी दुनिया है? मैं तो बस एक ही बात कह देती हूँ: “मैं नहीं कहती कुछ; जिसे जो बोलना है, बोले।” मेरी सास और ससुर भी अजीब हैं—बहुत बुरे। हमेशा ग़लत ही बोलते रहते हैं मुझे, कि मैं कहाँ रहती हूँ, किसके साथ रहती हूँ। उम्र में बड़े हैं, बुज़ुर्ग हैं, इसलिए मैं कुछ नहीं बोलती, बस चुप रह जाती हूँ। मेरा देवर भी बहुत ख़राब है—हमेशा मुझ पर ही नज़र रखता है, बहुत हरामख़ोर है। मैं घर जाना ही नहीं चाहती, पर कभी-कभी जाना पड़ता है, जब कोई बात होती है। पहले जब घर पर रहती थी, बड़ी मुश्किल से रहती थी। वहाँ सिर्फ खाना मिलता था, न कोई इज़्ज़त, न कुछ और। यहाँ तक कि कपड़े तक की दिक्कत थी। कई बार तो मैं खाना भी नहीं खाती थी, क्योंकि कपड़े नहीं होने पर नहा नहीं सकती थी, और अगर नहाती नहीं थी तो खाना भी नहीं खाती थी। ऐसे-ऐसे दिन देखे हैं मैंने। ऊपर से बात-बात पर मेरा देवर मारपीट करता, और मेरी सास-ससुर कुछ नहीं कहते थे कि “तुम ये क्यों कर रहे हो,” बल्कि उल्टा मुझे ही बोलते थे कि “ये ऐसी है।” ऐसी हालत में मैं क्या करती, कैसे समझती कुछ? मैं बिलकुल समझ नहीं पाती थी।
Tuesday, January 14, 2025
मोना की कहानी (अध्याय 11)
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