मेरी उम्र लगभग 33 हो गई है, पर अभी भी बचपना नहीं गया। क्यों नहीं गया, ये तो मुझे भी नहीं पता। मुझे खेलना-कूदना आज भी बहुत पसंद है, पर इन सब के लिए टाइम नहीं है। मेरा सपना बहुत है, पर ये नहीं कि मैं सज-सँवरकर रहूँ, ये पहनूँ, वैसे रहूँ। मेरा सपना अलग है—दूसरों का हेल्प करना। किसी को कोई ज़रूरत हो तो मैं कर सकूँ, ऐसा सपना है मेरा। किसी को खाना खिलाना या कोई काम हो, मैं कर सकूँ। पहले मेरा सपना था कि मेरे पास साइकिल हो, जिससे कहीं भी जाऊँ, जॉब करने तो पैसे ना लगें। तो मैंने साइकिल सीखी और ख़रीदी। फिर मैंने स्कूटी सीखी। किसी दोस्त ने मुझे स्कूटी दी थी। वो मुझे बोला, “मोना, तुम अपने भगवान से बोलो कि मेरी ये वाली जॉब लग जाए। अगर तुम्हारे भगवान जी कर देंगे, तो तुम्हें नई स्कूटी गिफ़्ट दूँगा।” तो मैंने भगवान जी से बोला, और उनकी जॉब लग गई। जब जॉब लग गई, तो वो बोले, “ठीक है, ले लेना।” मैंने अपनी दीदी और बेटी को भी ये बात बताई थी और कहा था, “देखो, भगवान जी क्या करते हैं।” भगवान जी ने कर दिया, और वो मुझे स्कूटी देने को भी तैयार थे। पर मैंने नहीं ली, मैंने बोला, “रहने दो, कोई बात नहीं। आपकी स्कूटी से ही काम चल जाएगा।” और उन्होंने मुझे स्कूटी चलाना सिखा दी। सिखाने के बाद वो मुझे आने-जाने के लिए स्कूटी दे देते हैं कभी-कभी। अब मेरा सपना है कि मैं कार सीखूँ और कार चलाऊँ। पर ये सपना कैसे पूरा होगा? ये थोड़ा बड़ा सपना है हैसियत के हिसाब से। हैसियत तो मेरी स्कूटी की भी नहीं थी, पर वो भी हो गया। इस तरह शायद ये भी हो जाए। जब मेरी शादी होकर मैं आई थी, तो मुझे कुछ पता नहीं था—बस इतना कि शादी हो गई और अब यहीं रहना है। तो मैं सब कुछ सहन करके रहती थी, क्योंकि हम 6 बहनें थीं, तो मुझे अपने घर में उतना प्यार नहीं मिला था। अभी भी मुझसे कोई इतना अटैच नहीं है कि मेरा हालचाल पूछे। मैं भले ही कभी-कभी किसी को कॉल कर लूँ, पर मुझे कोई फोन तक नहीं करता—फ़ोन तब करते हैं जब उन्हें कोई ज़रूरत हो। मैं जिस हाल में रहती हूँ, सब अपने भगवान से ही शेयर करती हूँ, क्योंकि मुझे ऐसा महसूस होता है। मैं पूजा नहीं करती, बस सुबह नहा के एक अगरबत्ती जला देती हूँ और मुझे बहुत अच्छा लगता है। आज तक मैंने भगवान से कभी कुछ नहीं माँगा—ना पैसा, ना अपनी जॉब। जब भी मुझे दिक्कत आती है, तो बस एक ही चीज़ माँगती हूँ, “हे भगवान जी, मेरा साथ देना और मेरे साथ रहना।” इतना सा कहने से ऐसा लगता है जैसे मुझे सब कुछ मिलने वाला है। यहाँ तक कि जब मुझे रात में नींद नहीं आती, तो मैं उन्हीं से बोलती हूँ, “हे भगवान, सुला दो,” और मैं सो जाती हूँ। बस नींद भी आ जाती है। मुझे लगता है वो हमेशा मेरे साथ रहते हैं। पहले मैं जॉब करती थी, पर अब लगभग 4 साल से सोसायटी में काम करती हूँ—प्लस कुकिंग। सुबह 5:30 से रात 9:30 तक काम करती हूँ, जिसमें दो घंटे का रेस्ट मिलता है। पहले कंपनी में 7 से 7 जॉब थी, पर अब मैंने कंपनी छोड़ दी, क्योंकि उसमें सीमित पैसा था—चाहे जितना काम करो, 8 या 10 घंटे ही। और इस सोसायटी वाले काम में जितना काम करोगे, उतना कमा सकते हो। पर एक जगह मुझे दिक्कत आई—मैं अपने लिए एक घर लेना चाहती हूँ और वो ले नहीं पा रही, क्योंकि बैंक लोन नहीं दे रही। वहाँ मुझे ये बात बोलते हुए रोना आ गया था कि मेरे पास पैसा तो है, पर लोन पास नहीं हो पाया, और घर लेने का सपना पूरा नहीं हो पाया। अब जिस घर को मैं पसंद करती हूँ, उस घर को “आशीष जैन” के नाम पर लेने की बात चल रही है। वो ले लेंगे, और जब मेरे पास पैसा होगा, तब मैं वो घर अपने नाम कर पाऊँगी। पर आगे जब उस घर का दाम बढ़ जाएगा, तब वो देंगे या नहीं, क्या पता। ऐसा तो कोई भगवान ही होता है जो किसी की हेल्प कर देते हैं, इंसान तो मैंने नहीं देखा। अगर ये बात सच हुई, तो वाकई वही भगवान होंगे मेरे लिए। सब ठीक चल रहा था। मैं जॉब कर रही थी, सब सेट था। अचानक मेरे जेठ का निधन हो गया, हादसे से। सब लोग पहुँचे, मैं नहीं जा पाई क्योंकि मैं अकेले रहती हूँ और जॉब करती हूँ। 2 दिन लेट से ट्रेन पकड़ी। जॉब से छुट्टी न मिलने के कारण मैंने जॉब ही छोड़ दी और निकल गई। मेरे पति बार-बार कॉल कर रहे थे, “कब आओगी?” और जैसे ही मैं घर पहुँचने वाली थी, उन्होंने कॉल करके बोला, “तुम मत आओ।” मैं बोली, “क्यों?” तो बोले, “सब मना कर रहे हैं कि जब अपने पति के साथ नहीं रहती, तो यहाँ क्यों आना?” मतलब, मैं पति को कमा के भी देती हूँ, अपने बच्चे का सारा ख़र्च भी दे रही हूँ, और उनके साथ रहूँ भी, पता नहीं कैसा परिवार है जिसमें मेरी शादी करा दी गई। मेरे घरवाले भी अजीब—न तो वो लोग ख़र्च देते हैं, न ही मेरे पति के पास दिमाग़ है कि कुछ काम कर सके। उनके हिसाब से और मेरे परिवार के हिसाब से ये है कि “तुम गाँव में रहती, घर में जो है, वही खातीं, और तुम्हारे बच्चे भी वैसे ही किसी तरह रहते।” ये मुझे बिलकुल पसंद नहीं। तो मेरी इस तरह से ज़िंदगी कट रही है। और अब तो मैं गाँव भी पहुँचने वाली हूँ। अब क्या करूँ, कैसे संभालूँ अपनी इज़्ज़त—क्योंकि वहाँ से तो मैंने छुट्टी ले रखी कि ऐसी बात है। और अब वहाँ तो जा नहीं सकती, तो मैं गाँव न जाकर देहरी में ही रहूँगी, कुछ दिन बाद चली जाऊँगी। मैं गाँव पहुँची, सब ठीक था—नॉर्मल ही था। मेरी एक चाचा-ससुर की बहू है, वह बहुत घमंडी है और बहुत तिकड़मी दिमाग़ की है—हमेशा मेरी ही चुगली करती रहती है, कभी इधर-कभी उधर। वह बहुत ही बेकार, नीचे स्तर की है, उसमें घमंड भी बहुत ज़्यादा है। अपना कभी नहीं देखती। पता नहीं ऐसे लोगों के साथ भी भगवान रहते होंगे। वह इतनी गंदी है कि किसी को कैसे ग़लत बोलना है, सब जानती है। पर मैं भगवान जी पर छोड़ देती हूँ कि भगवान जी सब देख लेंगे। मुझे अपने भगवान जी पर भरोसा है। बस एक-दो दिन किसी तरह रहना है। “हे भगवान, मेरा रक्षण करना, आप पर है सब।” फिर 4 दिन वहाँ रही, सब ठीक ही था। सब लोग यही बोल रहे थे कि “अपने पति को साथ में रखो।” पर मैं क्या बताऊँ, क्यों नहीं साथ रखती। मैं बस यही कहती हूँ, “मैं नहीं रख सकती, मैं मज़बूर हूँ। वो घर के लायक ही हैं—घर पर कोई काम नहीं है, और घर में खाना भी मिल रहा है। मैं रखूँगी, और कुछ हुआ, तो सारा इल्ज़ाम मुझ पर आ सकता है—कि यही कुछ की होगी,” क्योंकि मैं बहुत बदनाम हूँ कि अकेले जॉब करती हूँ, तो कोई भरोसा नहीं करता कि मैं अकेली रहती हूँ। मेरी उम्र भी कम है, तो लोग समझते हैं, “कैसे रहती होगी?” अब ये किसी को नहीं पता कि साथ रहकर भी मैं क्या करती—कुछ नहीं। दो बच्चे तो हो गए, पर कैसे हुए मुझे नहीं पता। बस हो गए जैसे-तैसे। प्यार में होना और जैसे-तैसे होना, दोनों में बहुत फ़र्क़ है। बात ये है कि प्यार में तो बच्चे हुए ही नहीं, “सोसाइटी” क्या बोले, उसे जबरदस्ती कहते हैं—“ये करना है।” उसी में मेरे बच्चे हो गए। मुझे तो पता ही नहीं कि ‘मन’ क्या होता है, मन की इच्छा या पति का प्यार—ये सब मुझे नहीं पता। बस पागलों की तरह मम्मी-पापा ने शादी करा दी, और मैं उसे सुधारने में लगी रही। आख़िर में जब नहीं हुआ, तो मैंने सब कुछ—लोग-लाज-दुनिया-समाज—छोड़कर अपना फ़ोकस काम पर रख दिया। अब तो काम से ही मुझे इतना टाइम नहीं मिलता कि मैं और कुछ सोचूँ। और किसी को विश्वास ही नहीं होता कि मैं अकेली रहती हूँ, क्योंकि मैं हमेशा ख़ुश रहती हूँ। वीडियो बनाना मुझे पसंद है, तो मैं वैसे ही वीडियो बनाती हूँ। लोग सोचते हैं, “पता नहीं कहाँ रहती है, इतनी अच्छी तरह रहती है,” बस इसका ग़लत अर्थ निकालते हैं। लोग ये नहीं सोचते कि “मेहनत करती है, इसलिए होगी अच्छी स्थिति में।” लोग बस ये सोचते हैं, “पता नहीं कौन रहता है इसके साथ, ज़रूर कोई होगा।” लोग तो ग़लत ही अर्थ निकालते हैं। पर मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। पहले बहुत बुरा लगता था, पर अब बिल्कुल नहीं लगता।
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Monday, January 13, 2025
मोना की कहानी (अध्याय 10)
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Mona Singh
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