मैं उस पर बहुत भरोसा करती हूँ। मैंने अपना कीमती सामान भी उसी के पास रख दिए हैं, उसी के रूम में। वो अच्छा है। पहले तो बस ऐसे ही, आती थी, कुकिंग करती थी और चली जाती थी। पता नहीं कैसे इतनी गहरी दोस्ती हो गई। मतलब अब इतना हो गया है कि एक चॉकलेट भी उससे पूछकर खाती हूँ—“खाऊँ या नहीं?” वो बोलेगा “ले लो,” तो लेती हूँ, नहीं बोलेगा तो नहीं लेती। ड्रेस खरीदनी हो तो भी उससे पूछती हूँ, “ले लूँ ये?” वो कहे “ले लो,” तब लेती हूँ, जबकि पैसा मेरा ही होता है। आशीष ने आज तक मुझे कुछ भी यह कहकर नहीं दिलाया कि “ये कपड़े ले लो” या “मेरी तरफ़ से लो,” पर मुझे बुरा भी नहीं लगता। मेरी एक दोस्त कहती है, “तुम इतनी मदद करती हो, और वो तुम्हें 100 रुपये के सामान का भी स्क्रीनशॉट भेज देता है, बताओ!” मैं कहती हूँ, “जाने दो यार, मुझे किसी से लेना पसंद भी नहीं।” फिर भी वो दोस्त बार-बार यही बोलती रहती है। मैं उसे समझाती हूँ कि वह (आशीष) मुझे बहुत इज़्ज़त देता है और मेरी हिम्मत बढ़ाता है। अब तो हालत ये है कि मैं कोई भी काम करना चाहूँ, तो लगता है, “कर लूँगी, आशीष है न!” वो मेरी बहुत केयर करता है। मुझे लगता है कि उसे मेरी परवाह भी है। मैं कभी बीमार पड़ती हूँ, तो वो बिना कहे दवाई लाना, देना, चाय-पानी सब करता है। मेरे लिए इतना ही बहुत है। पैसा ही सब कुछ नहीं होता—प्यार और परवाह भी ज़रूरी होते हैं। मन में ऐसा लगता है, जैसे “हम तुम्हारे हैं सनम” में माधुरी और सलमान की दोस्ती थी—वैसा दोस्ताना है हमारा। उसके साथ मेरा एक रिश्ता नहीं है, पर बाक़ी कई रिश्ते हैं—मीत, दोस्त, बहन जैसा—और आज के समय में ये सब बहुत मायने रखता है। मैं लड़की हूँ, वो लड़का है, हमारी उम्र भी लगभग समान है। मैं जॉब करती हूँ, फिर भी वो मुझे सपोर्ट करता है, हिम्मत देता है। मुझे लगता है कि हमें भगवान ने ही मिलवाया है। मुझे तो कुछ नहीं होता, पर जब वो मुझसे दूर जाने को कहता है, तो मुझे बहुत दुख होता है—सोचती हूँ, “मैं कैसे रहूँगी?” पर जो होना होगा, वो तो होगा ही। जितने दिन का साथ है, उतने दिन रहेंगे। आगे पता नहीं किससे मिलना होगा या क्या होगा, लेकिन हर सफ़र में अब तक मुझे अच्छे लोग ही मिले हैं। मेरी दीदी कहती है, “ऐसे कैसे भरोसा कर लेती हो, इतना बड़ा रिस्क ठीक नहीं।” मैं जवाब देती हूँ, “मेरी पूरी ज़िंदगी ही रिस्क से भरी है—जहाँ जाती हूँ, जो करती हूँ, हर काम में रिस्क है।” मैंने कहीं सुना था, “हिम्मत ही मर्द है, मर्द-मर्द नहीं है। जिसके पास हिम्मत है, वही असली मर्द है।” बस यही याद करके मैं भी चल देती हूँ—“हिम्मत ही मर्द है, चलो चलते हैं।”
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Friday, January 10, 2025
मोना की कहानी (अध्याय 7)
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Mona Singh
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