I went to my in-laws’ place for my elder brother-in-law’s funeral. The family there was saying, “Take (Guddu) with you as well—keep him there.” Nobody bothered to ask, “How do you manage living alone? How do you take care of everything?” It’s like no one understands a woman’s pain. Back at my parental home, they say, “What can you do? You’ll just have to put up with whatever your husband is like.” And at my in-laws’ place, it’s the same: “You don’t stay with him; you’re the troublemaker.” Nobody understands. What kind of world is this? I usually just say one thing: “I won’t say anything; let people say whatever they want.” My mother-in-law and father-in-law are odd—really awful. They always speak ill of me, questioning where I stay, who I stay with. They’re older and elders in the family, so I don’t say anything to them; I just keep quiet. My brother-in-law is also terrible—constantly watching my every move, a real nuisance. I don’t want to go back there at all, but sometimes I have to if something comes up. Before, when I lived at that house, it was extremely difficult. All I really got there was food—no respect, nothing else. Even clothes were a problem. Many times I wouldn’t eat because I didn’t have clothes to wear after bathing, and if I couldn’t bathe, I wouldn’t eat. Those were the kinds of days I had. On top of that, my brother-in-law would get physical with me over the smallest things, and my mother-in-law and father-in-law never stopped him, never said, “Why are you doing this?” Instead, they’d blame me: “She’s the problem.” In that situation, what was I supposed to do? How was I supposed to make sense of anything? I just couldn’t.
Tuesday, January 14, 2025
Mona - A Story (Chapter 11)
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मोना की कहानी (अध्याय 11)
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मैं घर गई थी अपने जेठ की मौत पर। वहाँ घरवाले बोल रहे थे, “इस (गुड्डू) को भी ले जाओ, वहीं रखो।” कोई ये नहीं कहता कि “तुम अकेले कैसे रह लेती हो, कैसे मैनेज करती हो?” मतलब, औरतों का दर्द कोई भी नहीं समझता। मायके में मायकेवाले कहते हैं, “क्या करोगी, जैसा पति है, सहना पड़ेगा,” और ससुराल में भी वही कि “तुम रखती नहीं हो, तुम ही बदमाश हो।” कोई नहीं समझने वाला है। ये कैसी दुनिया है? मैं तो बस एक ही बात कह देती हूँ: “मैं नहीं कहती कुछ; जिसे जो बोलना है, बोले।” मेरी सास और ससुर भी अजीब हैं—बहुत बुरे। हमेशा ग़लत ही बोलते रहते हैं मुझे, कि मैं कहाँ रहती हूँ, किसके साथ रहती हूँ। उम्र में बड़े हैं, बुज़ुर्ग हैं, इसलिए मैं कुछ नहीं बोलती, बस चुप रह जाती हूँ। मेरा देवर भी बहुत ख़राब है—हमेशा मुझ पर ही नज़र रखता है, बहुत हरामख़ोर है। मैं घर जाना ही नहीं चाहती, पर कभी-कभी जाना पड़ता है, जब कोई बात होती है। पहले जब घर पर रहती थी, बड़ी मुश्किल से रहती थी। वहाँ सिर्फ खाना मिलता था, न कोई इज़्ज़त, न कुछ और। यहाँ तक कि कपड़े तक की दिक्कत थी। कई बार तो मैं खाना भी नहीं खाती थी, क्योंकि कपड़े नहीं होने पर नहा नहीं सकती थी, और अगर नहाती नहीं थी तो खाना भी नहीं खाती थी। ऐसे-ऐसे दिन देखे हैं मैंने। ऊपर से बात-बात पर मेरा देवर मारपीट करता, और मेरी सास-ससुर कुछ नहीं कहते थे कि “तुम ये क्यों कर रहे हो,” बल्कि उल्टा मुझे ही बोलते थे कि “ये ऐसी है।” ऐसी हालत में मैं क्या करती, कैसे समझती कुछ? मैं बिलकुल समझ नहीं पाती थी।
Monday, January 13, 2025
मोना की कहानी (अध्याय 10)
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मेरी उम्र लगभग 33 हो गई है, पर अभी भी बचपना नहीं गया। क्यों नहीं गया, ये तो मुझे भी नहीं पता। मुझे खेलना-कूदना आज भी बहुत पसंद है, पर इन सब के लिए टाइम नहीं है। मेरा सपना बहुत है, पर ये नहीं कि मैं सज-सँवरकर रहूँ, ये पहनूँ, वैसे रहूँ। मेरा सपना अलग है—दूसरों का हेल्प करना। किसी को कोई ज़रूरत हो तो मैं कर सकूँ, ऐसा सपना है मेरा। किसी को खाना खिलाना या कोई काम हो, मैं कर सकूँ। पहले मेरा सपना था कि मेरे पास साइकिल हो, जिससे कहीं भी जाऊँ, जॉब करने तो पैसे ना लगें। तो मैंने साइकिल सीखी और ख़रीदी। फिर मैंने स्कूटी सीखी। किसी दोस्त ने मुझे स्कूटी दी थी। वो मुझे बोला, “मोना, तुम अपने भगवान से बोलो कि मेरी ये वाली जॉब लग जाए। अगर तुम्हारे भगवान जी कर देंगे, तो तुम्हें नई स्कूटी गिफ़्ट दूँगा।” तो मैंने भगवान जी से बोला, और उनकी जॉब लग गई। जब जॉब लग गई, तो वो बोले, “ठीक है, ले लेना।” मैंने अपनी दीदी और बेटी को भी ये बात बताई थी और कहा था, “देखो, भगवान जी क्या करते हैं।” भगवान जी ने कर दिया, और वो मुझे स्कूटी देने को भी तैयार थे। पर मैंने नहीं ली, मैंने बोला, “रहने दो, कोई बात नहीं। आपकी स्कूटी से ही काम चल जाएगा।” और उन्होंने मुझे स्कूटी चलाना सिखा दी। सिखाने के बाद वो मुझे आने-जाने के लिए स्कूटी दे देते हैं कभी-कभी। अब मेरा सपना है कि मैं कार सीखूँ और कार चलाऊँ। पर ये सपना कैसे पूरा होगा? ये थोड़ा बड़ा सपना है हैसियत के हिसाब से। हैसियत तो मेरी स्कूटी की भी नहीं थी, पर वो भी हो गया। इस तरह शायद ये भी हो जाए। जब मेरी शादी होकर मैं आई थी, तो मुझे कुछ पता नहीं था—बस इतना कि शादी हो गई और अब यहीं रहना है। तो मैं सब कुछ सहन करके रहती थी, क्योंकि हम 6 बहनें थीं, तो मुझे अपने घर में उतना प्यार नहीं मिला था। अभी भी मुझसे कोई इतना अटैच नहीं है कि मेरा हालचाल पूछे। मैं भले ही कभी-कभी किसी को कॉल कर लूँ, पर मुझे कोई फोन तक नहीं करता—फ़ोन तब करते हैं जब उन्हें कोई ज़रूरत हो। मैं जिस हाल में रहती हूँ, सब अपने भगवान से ही शेयर करती हूँ, क्योंकि मुझे ऐसा महसूस होता है। मैं पूजा नहीं करती, बस सुबह नहा के एक अगरबत्ती जला देती हूँ और मुझे बहुत अच्छा लगता है। आज तक मैंने भगवान से कभी कुछ नहीं माँगा—ना पैसा, ना अपनी जॉब। जब भी मुझे दिक्कत आती है, तो बस एक ही चीज़ माँगती हूँ, “हे भगवान जी, मेरा साथ देना और मेरे साथ रहना।” इतना सा कहने से ऐसा लगता है जैसे मुझे सब कुछ मिलने वाला है। यहाँ तक कि जब मुझे रात में नींद नहीं आती, तो मैं उन्हीं से बोलती हूँ, “हे भगवान, सुला दो,” और मैं सो जाती हूँ। बस नींद भी आ जाती है। मुझे लगता है वो हमेशा मेरे साथ रहते हैं। पहले मैं जॉब करती थी, पर अब लगभग 4 साल से सोसायटी में काम करती हूँ—प्लस कुकिंग। सुबह 5:30 से रात 9:30 तक काम करती हूँ, जिसमें दो घंटे का रेस्ट मिलता है। पहले कंपनी में 7 से 7 जॉब थी, पर अब मैंने कंपनी छोड़ दी, क्योंकि उसमें सीमित पैसा था—चाहे जितना काम करो, 8 या 10 घंटे ही। और इस सोसायटी वाले काम में जितना काम करोगे, उतना कमा सकते हो। पर एक जगह मुझे दिक्कत आई—मैं अपने लिए एक घर लेना चाहती हूँ और वो ले नहीं पा रही, क्योंकि बैंक लोन नहीं दे रही। वहाँ मुझे ये बात बोलते हुए रोना आ गया था कि मेरे पास पैसा तो है, पर लोन पास नहीं हो पाया, और घर लेने का सपना पूरा नहीं हो पाया। अब जिस घर को मैं पसंद करती हूँ, उस घर को “आशीष जैन” के नाम पर लेने की बात चल रही है। वो ले लेंगे, और जब मेरे पास पैसा होगा, तब मैं वो घर अपने नाम कर पाऊँगी। पर आगे जब उस घर का दाम बढ़ जाएगा, तब वो देंगे या नहीं, क्या पता। ऐसा तो कोई भगवान ही होता है जो किसी की हेल्प कर देते हैं, इंसान तो मैंने नहीं देखा। अगर ये बात सच हुई, तो वाकई वही भगवान होंगे मेरे लिए। सब ठीक चल रहा था। मैं जॉब कर रही थी, सब सेट था। अचानक मेरे जेठ का निधन हो गया, हादसे से। सब लोग पहुँचे, मैं नहीं जा पाई क्योंकि मैं अकेले रहती हूँ और जॉब करती हूँ। 2 दिन लेट से ट्रेन पकड़ी। जॉब से छुट्टी न मिलने के कारण मैंने जॉब ही छोड़ दी और निकल गई। मेरे पति बार-बार कॉल कर रहे थे, “कब आओगी?” और जैसे ही मैं घर पहुँचने वाली थी, उन्होंने कॉल करके बोला, “तुम मत आओ।” मैं बोली, “क्यों?” तो बोले, “सब मना कर रहे हैं कि जब अपने पति के साथ नहीं रहती, तो यहाँ क्यों आना?” मतलब, मैं पति को कमा के भी देती हूँ, अपने बच्चे का सारा ख़र्च भी दे रही हूँ, और उनके साथ रहूँ भी, पता नहीं कैसा परिवार है जिसमें मेरी शादी करा दी गई। मेरे घरवाले भी अजीब—न तो वो लोग ख़र्च देते हैं, न ही मेरे पति के पास दिमाग़ है कि कुछ काम कर सके। उनके हिसाब से और मेरे परिवार के हिसाब से ये है कि “तुम गाँव में रहती, घर में जो है, वही खातीं, और तुम्हारे बच्चे भी वैसे ही किसी तरह रहते।” ये मुझे बिलकुल पसंद नहीं। तो मेरी इस तरह से ज़िंदगी कट रही है। और अब तो मैं गाँव भी पहुँचने वाली हूँ। अब क्या करूँ, कैसे संभालूँ अपनी इज़्ज़त—क्योंकि वहाँ से तो मैंने छुट्टी ले रखी कि ऐसी बात है। और अब वहाँ तो जा नहीं सकती, तो मैं गाँव न जाकर देहरी में ही रहूँगी, कुछ दिन बाद चली जाऊँगी। मैं गाँव पहुँची, सब ठीक था—नॉर्मल ही था। मेरी एक चाचा-ससुर की बहू है, वह बहुत घमंडी है और बहुत तिकड़मी दिमाग़ की है—हमेशा मेरी ही चुगली करती रहती है, कभी इधर-कभी उधर। वह बहुत ही बेकार, नीचे स्तर की है, उसमें घमंड भी बहुत ज़्यादा है। अपना कभी नहीं देखती। पता नहीं ऐसे लोगों के साथ भी भगवान रहते होंगे। वह इतनी गंदी है कि किसी को कैसे ग़लत बोलना है, सब जानती है। पर मैं भगवान जी पर छोड़ देती हूँ कि भगवान जी सब देख लेंगे। मुझे अपने भगवान जी पर भरोसा है। बस एक-दो दिन किसी तरह रहना है। “हे भगवान, मेरा रक्षण करना, आप पर है सब।” फिर 4 दिन वहाँ रही, सब ठीक ही था। सब लोग यही बोल रहे थे कि “अपने पति को साथ में रखो।” पर मैं क्या बताऊँ, क्यों नहीं साथ रखती। मैं बस यही कहती हूँ, “मैं नहीं रख सकती, मैं मज़बूर हूँ। वो घर के लायक ही हैं—घर पर कोई काम नहीं है, और घर में खाना भी मिल रहा है। मैं रखूँगी, और कुछ हुआ, तो सारा इल्ज़ाम मुझ पर आ सकता है—कि यही कुछ की होगी,” क्योंकि मैं बहुत बदनाम हूँ कि अकेले जॉब करती हूँ, तो कोई भरोसा नहीं करता कि मैं अकेली रहती हूँ। मेरी उम्र भी कम है, तो लोग समझते हैं, “कैसे रहती होगी?” अब ये किसी को नहीं पता कि साथ रहकर भी मैं क्या करती—कुछ नहीं। दो बच्चे तो हो गए, पर कैसे हुए मुझे नहीं पता। बस हो गए जैसे-तैसे। प्यार में होना और जैसे-तैसे होना, दोनों में बहुत फ़र्क़ है। बात ये है कि प्यार में तो बच्चे हुए ही नहीं, “सोसाइटी” क्या बोले, उसे जबरदस्ती कहते हैं—“ये करना है।” उसी में मेरे बच्चे हो गए। मुझे तो पता ही नहीं कि ‘मन’ क्या होता है, मन की इच्छा या पति का प्यार—ये सब मुझे नहीं पता। बस पागलों की तरह मम्मी-पापा ने शादी करा दी, और मैं उसे सुधारने में लगी रही। आख़िर में जब नहीं हुआ, तो मैंने सब कुछ—लोग-लाज-दुनिया-समाज—छोड़कर अपना फ़ोकस काम पर रख दिया। अब तो काम से ही मुझे इतना टाइम नहीं मिलता कि मैं और कुछ सोचूँ। और किसी को विश्वास ही नहीं होता कि मैं अकेली रहती हूँ, क्योंकि मैं हमेशा ख़ुश रहती हूँ। वीडियो बनाना मुझे पसंद है, तो मैं वैसे ही वीडियो बनाती हूँ। लोग सोचते हैं, “पता नहीं कहाँ रहती है, इतनी अच्छी तरह रहती है,” बस इसका ग़लत अर्थ निकालते हैं। लोग ये नहीं सोचते कि “मेहनत करती है, इसलिए होगी अच्छी स्थिति में।” लोग बस ये सोचते हैं, “पता नहीं कौन रहता है इसके साथ, ज़रूर कोई होगा।” लोग तो ग़लत ही अर्थ निकालते हैं। पर मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। पहले बहुत बुरा लगता था, पर अब बिल्कुल नहीं लगता।
Mona - A Story (Chapter 10)
Index of Journals
I’m about 33 years old now, but I still haven’t lost my childlike nature. Why that is, even I don’t know. I still really love to play and run around, but I just don’t have time. I have big dreams, but not about dressing up or focusing on what I wear or how I look. My dream is different—to help others. If someone needs something, I want to be there for them. Whether it’s cooking a meal or helping with some work, I want to be able to do it. Originally, my dream was to have a bicycle so I could travel anywhere for work without spending money on transportation. So I learned how to ride a bike and bought one. Then I learned how to ride a scooter. A friend had a scooter that he lent to me. He once said, “Mona, pray to your God that I get this particular job. If your God grants it, I’ll gift you a new scooter.” So I prayed to God, and he got that job. Once his job was confirmed, he said, “Alright, then take it.” I told my sister and daughter, “Let’s see what God does.” And truly, God helped, and he was ready to give me a scooter as well. But I refused, saying, “No, it’s fine. I can manage with your scooter.” He did teach me how to ride it. After teaching me, sometimes he let me use it for commuting. Now my dream is to learn how to drive a car. But how will that happen? It’s a bit bigger dream than my situation usually allows. Even a scooter was beyond my means, but that worked out—so maybe this one will, too. When I first got married and came to live with my in-laws, I had no clue about anything—just that I was married and had to stay there. I put up with everything because we were six sisters at home, and I didn’t get much affection from my family. Even now, nobody is that close to me—nobody checks how I’m doing. Sometimes I might call them, but they never call me unless they need something. Whatever life I’m living, I mostly share it with God, because that’s how I feel. I don’t perform elaborate worship—I just bathe in the morning, light an incense stick, and that makes me feel good. All this time, I’ve never asked God for anything—not money, not a job. Whenever I face a challenge, I just ask, “Oh God, please stay with me and stand by me.” Saying just that makes me feel like I’m going to get everything I need. Even if I can’t sleep at night, I say, “Oh God, please help me sleep,” and then I do. It feels like He’s always there for me. I used to work at a regular job, but for about four years now, I’ve been working in a residential society and also doing cooking. I work from 5:30 in the morning until 9:30 at night, with a two-hour break. I used to work 7-to-7 at a company, but I quit because the pay was limited—no matter how much you work, it’s still just 8 or 10 hours’ worth of wages. In my current work at the society, the more I work, the more I can earn. One difficulty I ran into is that I want to buy a house for myself, but I haven’t been able to because the bank won’t give me a loan. I actually cried about it, saying, “I have enough money, but I can’t get the loan approved, so I can’t fulfill my dream of owning a home.” Now there’s talk of buying that house in the name of “Ashish Jain.” He’ll purchase it, and when I have enough money, I can transfer it to my name. But who knows—when the value of the house goes up, whether he’d hand it over? Maybe only God would do that kind of favor. I haven’t seen humans do that sort of thing. If it did happen, he’d be God to me. Everything was going fine. I was working, everything was settled. Suddenly, my older brother-in-law died in an accident. Everyone else managed to go see the family, but I couldn’t, because I live alone and work. Two days later, I caught a train. Since I couldn’t get time off, I quit my job and left. My husband kept calling, asking, “When are you coming?” Right when I was about to arrive, he called and said, “Don’t come.” I asked, “Why?” He said, “Everyone’s saying that if you’re not living with your husband, why come here?” That’s how it is—meanwhile, I still send money to my husband, cover all my child’s expenses, and am expected to live with them. I don’t know what kind of family I married into. My own family is strange, too—they don’t give me anything, nor does my husband have the capacity to earn. Their thinking (and my family’s thinking too) is, “You should just live in the village, eat whatever’s there, and let your kids get by however.” I don’t like that at all. So that’s how my life’s going. Now I’m on my way to the village. What should I do, how do I protect my dignity? Because I took leave under the pretense that there was some issue, so I can’t go back there (to my old job). So I won’t actually go to the village but stay somewhere else, in Dehri maybe, and leave in a few days. I finally arrived at the village, and everything was normal. There’s one of my uncle’s daughters-in-law who is very arrogant and cunning—always gossiping about me here and there. She’s not a nice person, and she’s full of pride, always finding faults. I have no idea how people like that manage in life—maybe God stands by them too. She’s so spiteful that she knows exactly how to badmouth someone. But I leave it to God. I trust God completely. I just need to get through a day or two somehow. “Oh God, protect me—everything is in your hands.” I stayed there for four days, and it was okay. Everyone kept saying, “Stay with your husband.” But how do I explain why I don’t stay with him? I just say, “I can’t; I have no choice. He’s better off at home—he does no work outside, and he gets meals there. If I stay with him and something goes wrong, I’ll be blamed—I’m already looked down on for working alone. People don’t believe I live by myself. I’m still young, so they wonder how I manage.” Nobody knows that even if I lived with him, I wouldn’t do much. I ended up with two kids, but I don’t even know how it happened—just that it did. Love and “just getting by” are very different things. If it were truly love, maybe the kids wouldn’t have been born under such pressure. “Society” just says, “You have to do this,” and in the process, kids happened. I have no clue what “feeling” or “husband’s love” is. My parents married me off, and I tried hard to fix the situation, but eventually, when it didn’t work, I left everyone’s judgments behind and focused on my job. Now I’m so busy with work that I have no time to overthink. People don’t believe I live alone because I’m always cheerful. I love making videos, so I make them. People think, “We don’t know where she stays or how she lives so nicely,” and they jump to the wrong conclusions. They don’t consider that I might be working hard, so I can live comfortably. They assume, “She must be living with someone, there has to be someone else.” They only see it negatively. It used to bother me a lot, but now I don’t care at all.
Sunday, January 12, 2025
Mona - A Story (Chapter 9)
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Even so, I behaved as if everything was fine and I had no problems. I used to tell my husband every day, “Go, find some work, it’ll be better.” My in-laws would get very upset about this and would say, “Look at her, she’s telling her husband to go earn money,” and they would scold me harshly. Life became such that I felt I wasn’t even like a living corpse—because even a corpse eventually ends, it’s cremated. But I was stuck in between, with death on my mind all the time. My family back home also said, “What’s done is done, now this is your whole life.” When I’d remember those words, I would think, “What do I do now? The situation at my in-laws’ is like this, and at my parents’ is that.” I never pinned my hopes on my parents because my mother is a bit different, and by then, I’d placed all my faith in God—only He would do what had to be done. I trusted Him deeply—so much so that when I first went out to work, I earned very little and my children used to fall ill. Before leaving for my job, I would leave my children under God’s care—placing a picture of Him with some medicine—and tell my daughter, “Take this medicine, give it to your sibling if needed; I’ll come back in the evening.” I did my job at the company, but spent the whole day remembering God—Durga Ma—saying, “Mother, she’s not really my daughter, she’s yours, so please watch over her until I return.” I’d say this and go to work without worry, confident that my daughter would be fine. When I returned home in the evenings, I always brought something with me—my kids would eat it. That was part of my daily routine. Even to this day, my children have never asked for anything or thrown a tantrum. If I handed them 10 rupees, they would just keep it aside and wouldn’t buy anything themselves. I’d say, “Go buy something,” but they wouldn’t. Other kids eat various things from shops all day, and I’d think maybe my children would want to as well, but they didn’t. Until now, they’ve had this habit that if I bring something, they’ll eat it, otherwise they won’t go to the shop on their own. My daughter is in 12th grade now and still does the same—she only eats what’s at home, doesn’t go out, doesn’t roam around, and doesn’t overthink. She just eats, goes to school, sleeps—that’s how it has been until now. These days, I pray to God, saying: “Oh God, I don’t have big dreams, but please make something good happen,” because I’ve raised her through a lot of hard work, taught her well. I’ve faced many hardships myself but never let my daughter suffer because of it. Yes, maybe she had some small discomforts, but given my own conditions, I protected her from much of it, especially ensuring she ate well and studied. When my daughter’s first birthday came around, I wanted to buy her new clothes and asked my father-in-law to bring them from a shop in the village (a bit far). I saved every little bit of money myself but realized that if I went, I’d have to pay for transportation, so I asked my father-in-law to bring them. I wrote a short note for the shopkeeper, thinking, “My father-in-law will provide some clothes for my daughter, so why not give him a note explaining her size and which outfit to get,” since we didn’t have phones at that time. I handed him the note, saying it had the dress measurements and which dress I wanted. My father-in-law brought it. They never let my husband go anywhere, saying, “Where would he go? We’ll bring it.” My father-in-law’s mindset is odd—even now he’s that way. He doesn’t let his older son do any work; I don’t know what kind of parents they are. I was very stressed living in the village under those conditions and kept telling my husband, “Go find work outside,” but he couldn’t manage it and would come back. That’s how 20 years passed—my childhood and youth went by without me even realizing it. In that span, I had two children, and then I left on my own to find work. At the time, I was still quite young and not very mature. Yes, I avoided getting too close to men or being interested in them, though I did talk to them. My friends would say, “You should have a friend you can chat with, to pass the time—you’re so different.” But I’d say, “No, everyone should do their duty, but don’t waste time hanging out pointlessly. I’m not interested in men.” They would reply, “Not all men are the same; at least talk to them,” but I wouldn’t. Some guys would ask for my mother’s phone number, saying: “You always get angry, you answer back sharply, but we still like you.” I never dressed up for work—just went simply—because I believed if you dress up too much, it might attract attention, and I didn’t want that. So I stayed the way I was.
मोना की कहानी (अध्याय 9)
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तो भी मैं ऐसे रहती कि जैसे मुझे कोई दिक्कत नहीं। मैं अपने पति से रोज़ कमाने को बोलती कि “जाओ, कहीं काम कर लो, तो ठीक रहेगा।” इस बात पर भी मेरी सास-ससुर मुझसे बहुत नाराज़ होते, कहते, “कैसी है, अपने पति को कमाने के लिए कहती है,” और बहुत खरी-खोटी सुनाते। जिंदगी ऐसी बन गई थी मानो मैं एक ज़िंदा लाश भी नहीं हूँ, क्योंकि लाश का भी अंत होता है—आख़िर में उसे जलाया जाता है। पर मैं तो वो भी नहीं—हर समय बस मरना ही दिखता था। मायके वाले भी यही बोलते थे कि “जो हो गया, सो हो गया, अब यही तुम्हारा सब कुछ है।” ये बातें याद करती थी तो सोचती, “अब क्या करूँ? ससुराल में ऐसी स्थिति और मायके में वैसी।” मैं कभी भी मायके से उम्मीद नहीं रखती थी क्योंकि मेरी माँ थोड़ी अलग हैं, और अब तो बस भगवान पर ही आसरा था कि वही करेंगे, जो करना होगा। मुझे अपने भगवान पर बहुत भरोसा है—इतना भरोसा कि जब मैं बाहर आई थी जॉब करने, मेरे पास कम पैसे मिलते थे और बच्चे बीमार पड़ते थे, तो मैं जॉब पर जाने से पहले अपने बच्चे को भगवान के पास छोड़ देती थी—उनकी एक फोटो रख देती, साथ में दवा—and मैं अपनी बेटी से कहती, “बेटा, ये दवा दे देना, मैं शाम को आऊँगी।” और मैं कंपनी में काम तो करती, पर सारा दिन भगवान को ही याद करती—दुर्गा माँ को, कि “माँ, वो मेरी बेटी नहीं, वो आपकी ही बेटी है, आप उसे संभाले रखना जब तक मैं जॉब पर हूँ।” ये बोलकर मैं निश्चिंत होकर काम करती थी, और मुझे पूरा भरोसा रहता था कि मेरी बेटी ठीक रहेगी। जब मैं शाम को घर आती, मेरी आदत थी कि कुछ लेकर ही आती—और मेरे बच्चे खाते। ये मेरा रोज़ का ही रूटीन था। आज तक मेरे बच्चों ने कुछ माँगा नहीं, न ही कभी जिद की। मैं कभी 10 रुपये भी दे दूँ तो वैसे ही रख देते, ख़ुद नहीं लेते। मैं बोलती, “बेटा, कुछ खरीद लो,” पर वो नहीं लेते। बाकी बच्चे दिन भर दुकान से कुछ न कुछ खाते हैं, तो मैं सोचती कि शायद इन्हें भी चाहिए होगा, पर नहीं। आज तक उनकी यही आदत रही कि मैं ले आऊँगी तो खाएँगे, वरना ख़ुद से दुकान पर नहीं जाते। आज मेरी बेटी 12वीं में पहुँच गई, फिर भी वही है—जो घर में है, वही खाती है, कहीं जाना या घूमना नहीं, न ही फ़ालतू में कहीं दिमाग़ लगाना। बस खाना, स्कूल जाना और सो जाना—आज तक यही चल रहा है। अब बस यही प्रार्थना करती हूँ भगवान से कि “हे भगवान, ज़्यादा सपना नहीं है, पर कुछ अच्छा कर देना,” क्योंकि मैंने बहुत मेहनत से पाला है उसे, पढ़ाया है। मैंने खुद बहुत कष्ट झेले हैं, पर अपनी बेटी को अपनी तरफ़ से कोई दिक्कत नहीं होने दी। हाँ, थोड़ा-बहुत तो हुआ ही होगा, पर मेरी हालत जैसी थी, उस हिसाब से मैंने उसे ज़्यादा तकलीफ़ नहीं आने दी, खाने-पीने और पढ़ाई का बहुत ध्यान रखा। जब मेरी बेटी का पहला जन्मदिन था, तो उसके लिए कपड़े ख़रीदने मैं अपने ससुर को बोल रही थी कि “ला दीजिए,” गाँव में ही दुकान थी, थोड़ा दूर पर। मैं खुद ही पैसे जोड़-जोड़कर ये सब करती थी, तो सोचती थी कि अगर मैं जाती, तो किराया लगता, इसलिए मैंने अपने ससुर से ही लाने को कहा। दुकानदार को एक लेटर लिखकर दिया था मैंने, सोचती थी, “मेरी बेटी के लिए कैसा भी कपड़ा पापा दिला देंगे, क्यों न मैं एक लेटर दे दूँ,” ताकि वो समझ जाए, क्योंकि उस समय फ़ोन नहीं था। मैंने लेटर दे दिया और कहा कि इसमें ड्रेस का नाप और कौन-सा ड्रेस चाहिए लिखा है। मेरे ससुर ले आए। क्योंकि मेरे पति को कहीं जाने नहीं देते थे कि “कहाँ जाएगा? हम ले आएँगे।” अजीब दिमाग़ है मेरे ससुर का—आज भी वैसा ही है। कोई काम अपने बड़े बेटे से नहीं कराते, पता नहीं कैसे माँ-बाप हैं। मैं इन बातों से गाँव में बहुत टेंशन में रहती थी और अपने पति को बाहर भेजती कि “जाओ, बाहर जॉब करो,” लेकिन वो कर नहीं पाते और घर लौट आते। इसी तरह 20 साल निकल गए—ना बचपन समझ आया, ना जवानी, कुछ पता ही नहीं चला। इसी में घिस-पिटकर दो बच्चे हो गए, और मैं अकेले बाहर जॉब करने निकल गई। उस वक़्त उम्र भी बहुत कम थी, समझदारी भी कम थी। हाँ, लड़कों से बच-बचकर रहती थी, बातें करती थी पर इतना इंट्रेस्ट नहीं था। मेरी सब फ्रेंड कहती थीं, “यार, कोई दोस्त होना चाहिए, जिससे तुम बात करो, टाइम पास करो, पर तुम तो हटके हो।” मैं एक ही बात बोलती थी, “नहीं, सब अपना कर्म करो, पर ‘कुकुर के फेरा’ में मत रहो (फ़ालतू घूमना-फिरना मत करो)। मुझे लड़का पसंद नहीं है।” वो कहतीं, “यार, सब एक जैसे नहीं होते, तुम बात तो करो,” पर मैं नहीं करती। कुछ लड़के मेरी माँ का नंबर माँगते कि “तुम कितना ग़ुस्सा करती हो, हमेशा उल्टा जवाब देती हो, फिर भी अच्छी लगती हो।” मैं कभी भी सज-सँवरकर कंपनी नहीं जाती थी, बहुत सादगी से जाती थी, क्योंकि मुझे बस इतना पता था कि ज्यादा सज-सँवरकर नहीं जाने से कोई उतना ध्यान नहीं देता, इसलिए मैं ऐसे ही रहती थी।
Saturday, January 11, 2025
Mona - A Story (Chapter 8)
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And now I’m with Ashish. Whatever problems or joys I have, I just tell him. My daughter is now in 12th grade, and that really worries me. All I want is for her to do something soon and pick a good course that doesn’t take too long. But she’s talking about taking NEET, and I’m afraid—wondering how it will all work out, especially since I don’t know much about it. I pray to God that she chooses a good path and finds a way to finish her studies quickly. I can’t tell my daughter directly that we’re short on money, but I can tell God. So I don’t tell her; instead, I pray to God, trusting He’ll work something out. For now, my life is going smoothly—my job is fine, and the budget is okay. My husband lives in our village. I got two bighas of land as my share, and I have it farmed; we get some money from that. We’ve been farming for seven years without issues. But now there’s a new tension at home because my husband has started staying in the village. My mother-in-law cooks the meals that my husband eats, and he helps out a bit around the house. We have cattle at home, and he takes care of them and milks them. But the family has started asking him to pay for the food—imagine that. They even demand money from their own son for two rotis. My husband is simple-minded, so I tell him, “If you’re going to live in the village, then figure out your meals yourself. What can I do from here? I’m working, looking after the kids, and have so many responsibilities.” Things stay calm for a while but then revert to the same old problems. I just hope my daughter picks some quick course and gets settled, because I don’t have much in my budget. Most of our money goes toward food, phone bills, the children’s school, tuition, and my daughter’s other needs. I’ve raised her really well—made sure she eats and drinks well. Whether or not we have money, I’ve never let her feel deprived, never said no to anything. When I was in the village, I also worked—managing responsibilities at home. Our house in the village was being built, and about ten laborers came from outside to do the construction. The question arose: who would cook for those ten people? Either we’d hire someone, or one of those workers would have to cook. I spoke privately with my brother-in-law, saying, “Can I do this job? Whatever you’d pay them, just pay me instead.” He laughed and said, “Come on, Sister-in-law, why do you need to do that? You have everything you need at home—just tell me what you want, and I’ll give it to you.” I replied, “No, Munna-ji, I don’t need anything. Just tell me—can I do this work? I like to work.” He agreed, saying, “No problem, go ahead. It’s all at home anyway; we have the gas stove and utensils.” Then I said, “Please don’t tell my father-in-law I’m getting paid for it, or he won’t let me do it.” He said, “Alright, it’s settled. Start cooking tomorrow.” I added, “I need some payment in advance,” and he said, “Sure, whatever you want,” and gave me 9,000 rupees upfront. When my father-in-law came from Ranchi and heard, “Mona’s taking over the cooking,” he was delighted. “This is great,” he said, “Mona will cook,” because they’d save the cost of hiring a cook—three people were pooling money for the house, plus my father-in-law contributed, so he was happy. It wasn’t out of kindness that he let me do it; he just saw an opportunity to save money. But I knew how it really worked. I took payment for my cooking and had already collected an advance from my brother-in-law. I cooked for about two or three months. Then, when it was time to pay me, my father-in-law found out that “Mona is taking money.” He made a huge fuss: “This is housework, and she’s charging money?” I said, “Why shouldn’t I? When the household itself tells its own daughter-in-law, ‘We don’t have money,’ even though we’re farming, selling milk, and I’m here looking after everything—your son, the house—and I’m your daughter-in-law too, why can’t you pay me for my work?” Those things made me really sad. I saved every rupee I earned to take care of my own needs, and when I visited my parents, I’d say, “I got this money from there,” and use it for my daughter, buying her creams, paying off small loans, and anything else she needed. It was painful living there—I would cry over small things, from underwear to vests, because I had to beg for them. Whenever I needed something, I’d ask my husband, who would ask my mother-in-law, who would ask my father-in-law—and only then would I get it. That was my reality in those days. I had no desire to go on living like that, yet still I…
मोना की कहानी (अध्याय 8)
Index of Journals
और अब मैं आशीष के साथ हूँ। जो भी दुख-सुख होता है, उसे बता देती हूँ। अभी मेरी बेटी 12वीं में आ गई है, उसी की बहुत टेंशन रहती है मुझे। बस यही चाहती हूँ कि वह जल्दी कुछ कर ले और जल्दी कोई अच्छा कोर्स चुन ले, जो कम समय का हो। पर देखो, वह NEET करने की बात करती है। मुझे डर लगता है कि कैसे होगा, पर पता नहीं, क्योंकि मुझे उतना नॉलेज नहीं है। भगवान से यही प्रार्थना करती हूँ कि वह कोई अच्छा रास्ता चुने और जल्दी पढ़ाई पूरी करने वाला रास्ता निकाले। बस मैं अपनी बेटी को तो नहीं बता सकती कि पैसे की दिक्कत है, पर भगवान को तो बता ही सकती हूँ। इसीलिए बेटी को ना बताकर भगवान को ही बता देती हूँ और मुझे भरोसा है कि भगवान कुछ न कुछ करेंगे। अभी मेरी लाइफ़ में सब ठीक चल रहा है—जॉब भी ठीक है और बजट भी ठीक है। मैं और मेरे पति गाँव में रहते हैं। मैंने दो बीघा ज़मीन ले ली है हिस्से में, उसी में खेती करवाती हूँ। उससे थोड़ा पैसा आ जाता है। खेती करते-करते 7 साल हो गए, सब ठीक था। पर अब फिर से घर में टेंशन चलने लगा, क्योंकि मेरे पति गाँव में ही रहने लगे हैं। तो मेरी सास जो खाना बनाती है, वही मेरे पति भी खाते हैं, और वे थोड़ा बहुत घर का काम भी कर देते हैं। घर में काउल्टी (पशुओं की देखरेख) है, उसका दूध भी निकालते हैं। पर अब वो लोग खाने का पैसा माँगने लगे—मतलब, क्या बताऊँ। वो अपने बेटे से भी दो रोटी का पैसा माँगते रहते हैं। मेरे पति सीधे हैं, दिमाग से। मैं बोलती हूँ, “जब गाँव में रहना है, तो अपने खाने का इंतज़ाम खुद देखो। मैं यहाँ से क्या ही करूँ? मैं जॉब करूँ या बच्चों को देखूँ या इतनी सारी ज़िम्मेदारियाँ निभाऊँ?” कुछ दिन सब ठीक रहता है, फिर वही चल रहा है। बस मैं यही सोचती हूँ कि मेरी बेटी जल्दी से कोई जल्दी वाला कोर्स कर ले और कहीं सेट हो जाए, क्योंकि मैं इतनी बजट में नहीं हूँ। सारा पैसा खाने, फोन में, बच्चों के स्कूल, ट्यूशन और बेटी के मेंटेनेंस में खर्च हो जाता है। मैंने अपनी बेटी को बहुत अच्छे से पाला है, अच्छा खाने-पीने का ध्यान दिया है। पैसे रहें या न रहें, कभी भी उसे कोई दिक्कत नहीं होने दी। कोई भी चीज़ के लिए मना नहीं किया। जब मैं गाँव में थी, तब भी मैंने काम किया—अपने ही घर में ज़िम्मेदारियों का काम किया। मेरा गाँव में घर बन रहा था, तो बाहर से क़रीब 10 मज़दूर आए थे घर बनाने के लिए। बात ये हुई कि उन 10 लोगों का खाना कौन बनाएगा? या तो किसी को रखना होगा या उन्हीं में से किसी एक को खाना बनाने पर लगा देना होगा। तब मैं अपने देवर को अकेले में बुलाकर बोली, “क्या ये काम मैं कर सकती हूँ? जो पैसा उन्हें देते हो, वो मुझे ही दे दो।” वो हँसने लगे और बोले, “अरे भाभी, आप कैसी बात कर रही हो। आपको काम करने की क्या ज़रूरत? घर में क्या कमी है? जो चाहिए हो, मुझे बता दो, मैं दे दूँगा।” मैं बोली, “नहीं मुना जी, मुझे कुछ नहीं चाहिए, बस बताओ क्या मैं ये काम कर लूँ? मुझे काम करना पसंद है।” तो वो बोले, “कोई बात नहीं, आप कर लो। घर में ही तो बनाना है। गैस और बर्तन-सामान सब आ गया है।” फिर मैं बोली, “मेरे ससुर को मत बताना कि मैं पैसे लेकर बना रही हूँ, नहीं तो वो बनाने नहीं देंगे।” तो वो बोले, “ठीक है, पक्का हो गया। आप कल से खाना बना देना।” तो मैं बोली, “पहले एडवांस देना होगा।” वो बोले, “ठीक है, जो कहो।” और उन्होंने मुझे 9000 एडवांस दे दिए। राँची से जब मेरे ससुर आए और सुना कि “मोना खाना बनाने का ज़िम्मा ले रही है,” तो वे बहुत ख़ुश हुए। बोले, “ये तो अच्छा है, खाना मोना बना देगी,” क्योंकि उन लोगों का खाना बनाने का खर्च बच गया—तीन लोग मिलकर घर बनवा रहे थे, तो तीनों का पैसा लगना था, और मेरे ससुर भी देते। इसीलिए वो ज़्यादा ख़ुश हो गए। उनमें दया नहीं थी कि “ये क्यों बनाएगी,” बल्कि उन्हें लगा कि उनका पैसा बचेगा। पर मुझे पता था कि कैसे करना है। मैं तो पैसे लेकर बनाती थी, और मैंने अपने देवर से एडवांस ले लिया। 2-3 महीने ही खाना बनाया था, फिर जब पैसे देने का टाइम आया, तो मेरे ससुर को पता चल गया कि “मोना पैसे ले रही है।” उन्होंने बहुत विवाद किया कि “घर का काम है, और ये पैसा ले रही है?” तो मैं बोली, “क्यों न लूँ, जब घरवाले ही ऐसे हों कि अपनी ही बहू से कह दें ‘कहाँ से दे, पैसा है ही नहीं,’ जबकि खेती हो रही है, दूध भी बिक रहा है, और मैं यहीं पर सबका ध्यान रख रही हूँ—आपका बेटा भी तो यही है, और मैं आपकी बहू हूँ—तो आप उसे कोई भी काम के लिए पैसा क्यों नहीं दे सकते?” इन सब बातों से मैं बहुत दुखी रहती थी। मैं पैसे बचा-बचाकर अपनी ज़रूरतें पूरी करती थी, और उसी पैसे को मैं जब मायके जाती थी, तो बोलती, “वहाँ से इतना मिला है,” और अपनी बेटी का ध्यान रखती, उसका क्रीम, लोन या जो भी ज़रूरी चीजें होतीं, ले आती। मैं वहाँ बहुत दर्द में रही—छोटी-छोटी चीज़ों के लिए रोया करती, चड्डी से लेकर बनियान तक के लिए तरसती थी। जब ज़रूरत होती, तो मैं अपने पति से कहती, मेरे पति मेरी सास से, और सास मेरे ससुर से—तब कहीं जाकर मुझे मिलता। यही हाल था उन दिनों। मुझे जीने का मन नहीं करता था, तब भी मैं...
Friday, January 10, 2025
मोना की कहानी (अध्याय 7)
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मैं उस पर बहुत भरोसा करती हूँ। मैंने अपना कीमती सामान भी उसी के पास रख दिए हैं, उसी के रूम में। वो अच्छा है। पहले तो बस ऐसे ही, आती थी, कुकिंग करती थी और चली जाती थी। पता नहीं कैसे इतनी गहरी दोस्ती हो गई। मतलब अब इतना हो गया है कि एक चॉकलेट भी उससे पूछकर खाती हूँ—“खाऊँ या नहीं?” वो बोलेगा “ले लो,” तो लेती हूँ, नहीं बोलेगा तो नहीं लेती। ड्रेस खरीदनी हो तो भी उससे पूछती हूँ, “ले लूँ ये?” वो कहे “ले लो,” तब लेती हूँ, जबकि पैसा मेरा ही होता है। आशीष ने आज तक मुझे कुछ भी यह कहकर नहीं दिलाया कि “ये कपड़े ले लो” या “मेरी तरफ़ से लो,” पर मुझे बुरा भी नहीं लगता। मेरी एक दोस्त कहती है, “तुम इतनी मदद करती हो, और वो तुम्हें 100 रुपये के सामान का भी स्क्रीनशॉट भेज देता है, बताओ!” मैं कहती हूँ, “जाने दो यार, मुझे किसी से लेना पसंद भी नहीं।” फिर भी वो दोस्त बार-बार यही बोलती रहती है। मैं उसे समझाती हूँ कि वह (आशीष) मुझे बहुत इज़्ज़त देता है और मेरी हिम्मत बढ़ाता है। अब तो हालत ये है कि मैं कोई भी काम करना चाहूँ, तो लगता है, “कर लूँगी, आशीष है न!” वो मेरी बहुत केयर करता है। मुझे लगता है कि उसे मेरी परवाह भी है। मैं कभी बीमार पड़ती हूँ, तो वो बिना कहे दवाई लाना, देना, चाय-पानी सब करता है। मेरे लिए इतना ही बहुत है। पैसा ही सब कुछ नहीं होता—प्यार और परवाह भी ज़रूरी होते हैं। मन में ऐसा लगता है, जैसे “हम तुम्हारे हैं सनम” में माधुरी और सलमान की दोस्ती थी—वैसा दोस्ताना है हमारा। उसके साथ मेरा एक रिश्ता नहीं है, पर बाक़ी कई रिश्ते हैं—मीत, दोस्त, बहन जैसा—और आज के समय में ये सब बहुत मायने रखता है। मैं लड़की हूँ, वो लड़का है, हमारी उम्र भी लगभग समान है। मैं जॉब करती हूँ, फिर भी वो मुझे सपोर्ट करता है, हिम्मत देता है। मुझे लगता है कि हमें भगवान ने ही मिलवाया है। मुझे तो कुछ नहीं होता, पर जब वो मुझसे दूर जाने को कहता है, तो मुझे बहुत दुख होता है—सोचती हूँ, “मैं कैसे रहूँगी?” पर जो होना होगा, वो तो होगा ही। जितने दिन का साथ है, उतने दिन रहेंगे। आगे पता नहीं किससे मिलना होगा या क्या होगा, लेकिन हर सफ़र में अब तक मुझे अच्छे लोग ही मिले हैं। मेरी दीदी कहती है, “ऐसे कैसे भरोसा कर लेती हो, इतना बड़ा रिस्क ठीक नहीं।” मैं जवाब देती हूँ, “मेरी पूरी ज़िंदगी ही रिस्क से भरी है—जहाँ जाती हूँ, जो करती हूँ, हर काम में रिस्क है।” मैंने कहीं सुना था, “हिम्मत ही मर्द है, मर्द-मर्द नहीं है। जिसके पास हिम्मत है, वही असली मर्द है।” बस यही याद करके मैं भी चल देती हूँ—“हिम्मत ही मर्द है, चलो चलते हैं।”
Mona - A Story (Chapter 7)
Index of Journals
I trust him deeply. I’ve even left my valuable items with him, in his room. He’s a good person. In the beginning, I would just come, cook, and leave. I don’t know how our friendship became so strong. It’s gotten to the point where I won’t even eat a piece of chocolate without asking him, “Should I eat it or not?” If he says “Go ahead,” I eat it; if he doesn’t, I won’t. Even if I want to buy a dress, I ask him, “Should I buy this?” If he says yes, then I do—though I’m spending my own money. Ashish has never bought me anything with words like, “Here, take these clothes, it’s my treat.” Yet I don’t mind at all. One of my friends says, “You do so much for him, but if he buys something worth even 100 rupees, he sends you a screenshot about it—imagine that!” I tell her, “Let it go. I don’t like taking anything from people.” Still, she keeps bringing it up. I explain that he (Ashish) respects me a lot and encourages me. Now it’s at a stage where if I want to do something, I think, “I can do it—Ashish is there!” He cares for me a lot. I feel like he truly worries about me. If I ever fall ill, he’ll bring me medicine and tea or water without even being asked. That alone means a lot to me. It’s not all about money—affection and concern matter, too. It feels like the friendship between Madhuri and Salman in “Hum Tumhare Hain Sanam.” We don’t have just one kind of bond; we share many—friendship, a sibling-like closeness—and these things really matter these days. I’m a woman, he’s a man, and we’re about the same age. I work, and he still supports me and boosts my confidence. It’s like God himself made us cross paths. I’m usually fine, but when he talks about going away from me, it really hurts. I wonder, “How will I manage?” But whatever is meant to happen will happen. We’ll stay together as long as we’re meant to. Who knows whom I’ll meet or what will happen down the road, yet I’ve always encountered good people in every journey. My sister asks, “How can you trust so easily? It’s a big risk.” I tell her, “My whole life is a risk—wherever I go, whatever I do, it’s always a risk.” I once heard someone say, “Courage is manliness; being a man is not just about being male. Whoever has courage is the real man.” I keep that in mind and move forward: “Courage is manliness—let’s go.”
Thursday, January 9, 2025
Wall Street may slash 200,000 jobs as AI erodes roles
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Synopsis Global banks may cut up to 200,000 jobs in the next three to five years due to AI. Positions in the back office, middle office, and operations are most at risk. Customer services and know-your-customer roles may also change. AI tools are expected to increase productivity and revenue for banks. Global banks are expected to cut as many as 200,000 jobs in the next three to five years as artificial intelligence encroaches on tasks currently carried out by human workers, according to Bloomberg Intelligence. Chief information and technology officers surveyed for BI indicated that on average they expect a net 3% of their workforce to be cut, according to a report published Thursday. Back office, middle office and operations are likely to be most at risk, Tomasz Noetzel, the BI senior analyst who wrote the report, said in a message. Customer services could see changes as bots manage client functions, while know-your-customer duties would also be vulnerable. “Any jobs involving routine, repetitive tasks are at risk,” he said. “But AI will not eliminate them fully, rather it will lead to workforce transformation.” Nearly a quarter of the 93 respondents predict a steeper decline of between 5% and 10% of total headcount. The peer group covered by BI includes Citigroup Inc., JPMorgan Chase & Co. and Goldman Sachs Group Inc. The findings point to far-reaching changes in the industry, feeding through to improved earnings. In 2027, banks could see pretax profits 12% to 17% higher than they would otherwise have been — adding as much as $180 billion to their combined bottom line — as AI powers an increase in productivity, according to BI. Eight in ten respondents expect generative AI to increase productivity and revenue generation by at least 5% in the next three to five years. Banks, which have spent years modernizing their IT systems to speed up processes and shave costs in the wake of the financial crisis, have been flocking into the new generation of AI tools that could further improve productivity. Citi said in a report in June that AI is likely to displace more jobs across the banking industry than in any other sector. About 54% of jobs across banking have a high potential to be automated, Citi said at the time. Still, many firms have stressed that the shift will result in roles being changed by technology, rather than replaced altogether. Teresa Heitsenrether, who oversees JPMorgan’s AI efforts, said in November that the bank’s adoption of generative AI was so far augmenting jobs. Jamie Dimon, JPMorgan’s chief executive officer, told Bloomberg Television in 2023 that AI is likely to make dramatic improvement in workers’ quality of life, even if it eliminates some positions. “Your children are going to live to 100 and not have cancer because of technology,” Dimon said at the time. “And literally they’ll probably be working three-and-a-half days a week.” Ref
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