फिर वो लोग चले गए। मैं काम में मस्त हो गई, इसी तरह दिन बीत गया। फिर मेरे घर से फ़ोन आने लगे कि “अपनी बेटी को ले जाओ। तुम तो निश्चिंत होकर काम कर रही हो।” उस समय मेरी छोटी बहन की शादी नहीं हुई थी, तो वो मुझे बहुत बोलती। कभी-कभी तो मुझे रोना आ जाता कि मैं किस मुसीबत में हूँ—अगर काम करूँ तो दिक्कत, न करूँ तो और दिक्कत। अब कैसे करूँ, क्या करूँ? फिर मैं अपनी दोनों बच्चियों को लेकर हरियाणा आ गई। हरियाणा आकर सबसे पहले मैंने उन्हें ताला-लॉक खोलना और बंद करना सिखाया, क्योंकि दोनों ही छोटी थीं। उसके बाद उन्हें स्कूल में डाल दिया—स्कूल अच्छा था, पास में था। फिर वो दोनों स्कूल जाने लगीं। उनका स्कूल टाइम था 7:30, और मेरी कंपनी थी 6 से 6। तो मैं सुबह 4 बजे ही उठती, घर का सारा काम ख़त्म करके, बच्चों को तैयार करके—दोनों को ड्रेस पहनाकर—निकलती थी। उन्हें बोलती थी, “किसी तरह टाइम देखकर तुम दोनों भी निकल जाना और एक घंटा रूम में ही रहना, बाहर मत जाना।” मेरे बच्चे घर से बाहर नहीं जाते थे, चाहे कुछ भी हो। घर में ही रहते थे। फिर वो टाइम देखकर निकल जाते। इस तरह दिन कट रहा था। बीच में मेरी बेटी स्कूल ही नहीं जाती थी। मैं तैयार कराके चली जाती, और ये दोनों खेलते हुए घर पर ही रह जाते—मुझे पता भी नहीं चलता। फिर एक दिन स्कूल से कॉल आया कि “मैम, आपके बच्चे कहाँ हैं? आप कहाँ हो, बच्चे स्कूल नहीं आ रहे?” मैं बोली, “नहीं, मैं तो रोज़ उन्हें तैयार करके जाती हूँ। फिर कैसे?” तो अब बच्चे तो कुछ बताएँगे नहीं। फिर मैंने मैम से कहा, “मैम, क्या मैं आपके घर पर बच्चों को तैयार करके छोड़ दूँ? क्योंकि मैं तो निकल जाती हूँ, और घर में कोई है नहीं।” मैम बोलीं, “ठीक है।” मैम का घर पास में था। फिर मैं रोज़ उन्हें वहाँ छोड़ आती। इस तरह दिन निकल रहा था। मेरे बच्चों को बहुत दिक्कत होती थी। कभी चाबी कहीं रख देते, तो पूरा दिन ड्रेस पहने ही बाहर मेरा इंतज़ार करते रहते। जब मैं आती, तब मेरे पास एक चाबी होती थी, तो अंदर जाते। कभी खाना गिर जाता, तो पूरा दिन भूखे रह जाते। पर मेरे बच्चे कोई शिकायत नहीं करते कि “मैं भूखी हूँ” या “मुझे भूख लगी है।” मैं बोलती, “दुकान से कुछ ले लिया करो,” तो “नहीं, तुम आओगी तभी खाएँगे।” पैसे भी देकर जाओ, तो भी नहीं खाते। मैं जो ले आऊँ, वही खाते। आज तक उनकी आदत यही है कि मम्मी लाकर देगी, तभी खाएँगे। कोई चीज़ की जिद नहीं। इसी तरह सब चलता रहा, और मेरी बेटी क्लास 2 या 3 में आ गई। फिर मुझे कोई प्रॉब्लम आ गई, और मैं अपने घर चली गई—मायके। वहाँ एक साल रही। उसके बाद मैं अपनी बहन के घर रही। बहन के घर के दिन बहुत दुखभरे थे। जब मैं बहन के घर रहती थी, तो घर का सारा राशन और ख़र्च मेरा ही था, क्योंकि मेरी बहन अकेली रहती थी, और हम तीन लोग हो गए थे—इसलिए मुझे ही करना पड़ता। मैं काम भी नहीं कर रही थी, तो मेरे पास जो कुछ पैसे जमा थे, वो सब वहीं ख़त्म हो गए। फिर मैंने दीदी का घर छोड़ दिया और गाँव आ गई। गाँव आकर मैंने अपने बच्चों को अकेले ट्रैवल करना सिखाया—कैसे गाँव से आना-जाना है। मैं क़रीब 4 महीने तक बच्चों को गाँव से ही सिटी के स्कूल भेजने लगी—धीरे-धीरे उन्होंने सीख लिया, आने-जाने लगे। मैं अपने बच्चों को जोड़ के पैसे देती, कि “इतने-इतने देने हैं।” फिर वो दोनों गाँव से क़रीब 2 घंटे पहले निकल जाते, ताकि स्कूल टाइम पर पहुँचें, क्योंकि लेट होने पर गेट बंद हो जाता था। अगर गेट बंद हो गया, तो बच्चों का स्कूल मिस हो जाता। तब मेरे बच्चे बस 5वीं और 4वीं में थे। मैं अपने बच्चों को दो टिफ़िन देती थी, क्योंकि वो लेट आते—कभी टाइम से आते, तो 5 बजे तक आ जाते, क्योंकि छुट्टी 2:30 बजे होती थी, और गाँव आने में 2 घंटे से ज़्यादा लग जाते थे। इसी तरह बहुत मुश्किल से दिन बीत रहे थे—एक तरफ़ बच्चे, दूसरी तरफ़ उनकी पढ़ाई। मैंने अपने बच्चों को अपनी तरफ़ से बहुत चलना सिखाया, ताकि बड़े होकर उन्हें कुछ भी करने में दिक्कत न हो। मैंने उन्हें बचपन से ही अकेले चलना सिखाया, क्योंकि मुझे एक सिंगल माँ की तरह ही उन्हें देखना था, काम भी करना था। अगर मैं बाहर काम करूँ, तो उन्हें पता हो कि स्कूल जाना-आना कैसे करना है। कुछ महीने बाद मैंने कमरा ले लिया, और वहाँ सिर्फ़ एक ही रूम था। किराया 2000 रुपये था। जब मैं घर से निकली, तो सब बोले, “जाओ, पर घर से पैसा नहीं मिलेगा, जैसे करना हो, करो।” तो मैंने कहा, “या तो मेरे बच्चों की पढ़ाई का खर्च दो, या मुझे मेरा हिस्सा दो।” इस पर घर में बहुत विवाद हुआ और बातें कोर्ट तक पहुँच गईं।
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Sunday, January 19, 2025
मोना की कहानी (अध्याय 18)
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Mona Singh
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